क्या है ? पिछड़े वर्ग की परिभाषा

          आरक्षण को लेकर सभी विपक्षी पार्टियां केंद्र सरकार को कटघरे मे खड़ा कर रहीं हैं। भारतीय जनता पार्टी पिछड़े वर्गों के राष्ट्रीय आयोग को सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से नया संवैधानिक दर्जा देने के लिए प्रतिबद्ध है। भाजपा अन्य पिछड़ा वर्ग के विस्तार को समर्थन दे रही है क्योंकि २०१४ लोकसभा चुनाव के उनके वादों में ये भी शामिल था। हालही में संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम ने यह सिद्ध कर दिया की भाजपा का तीर निशाने पर लगा है। भाजपा यह लय बरकरार रखना चाहेगी क्योंकि उत्तर प्रदेश और बिहार मे उसका सीधा मुकाबला ऐसी क्षेत्रीय पार्टियों से है जिनका पिछड़ा वर्ग परंपरागत वोटर रहा है और वे अपना खोया अस्तित्व पाने के लिए उनके समर्थन पर आश्रित है।   
           दरसल केंद्र सरकार अपने वादों को पूरा करने के लिये पिछड़ी जातियों के आरक्षण की परिसीमा को बढ़ाना चाहती है। इसके लिए सरकार ओबीसी की नई परिभाषा गढ़ने की तैयारी में है। भारत के सविधान मे समाजिक एवं शैक्षणिक मामलों मे पिछड़ी जातियों को ओबीसी मे शामिल करने का प्रावधान है। धारा ३४० के तहत ओबीसी का हित करना सरकार का दायित्व है। सामाजिक तथा वित्तीय आधार पर इन्हें लिस्ट मे शामिल करने या बाहर करने का काम समाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय करता है। भाजपा के प्रति ओबीसी का झुकाव पूरे देश मे विशुद्ध रूप से दिख रहा है। भारत मे ५० फीसदी से अधिक की जनसंख्या ओबीसी की है और अमित शाह के शब्दों मे 'पंचाय से संसद' तक कमल खिलने का ध्येय रखने वाली भाजपा को इस वर्ग पर विशेष मेहरबान होना पड़ेगा।
          साल १९५३ में कालेलकर कमिशन बनाया गया। इसमे २३९९ जातियों को ओबीसी में शामिल करने की सिफारिश की गई। इस आयोग ने प्राद्योगिकी संस्थानों में पिछड़ों को ७० फीसदी आरक्षण की मांग की पर सरकार ने इसे नहीं माना। वी.पी. सिंह की अगुवाई मे भारत सरकार ने साल १९९० मे अन्य पिछड़ी जातियों को सरकारी संस्थानों और नौकरियों में २७ फीसदी आरक्षण की घोषणा की थी ताकि उन्हें भी शिक्षा और रोजगार के बराबर अवशर प्रदान किये जा सके। साल १९९२ मे इंदिरा सहानी ने भारत सरकार के इस फैसले के विरुद्ध कोर्ट मे याचिका दायर की और पिछड़ेपन की परिभाषा को बदलते हुए क्रीमी लेयर यानी वित्तीय रूप से मजबूत जातियों को आरक्षण से बाहर रखने की मांग की। साल १९९३ में एक लाख से अधिक वार्षिक आमदनी वाले ओबीसी परिवारों को नवोनन्त वर्ग के दायरे में रखा गया। साल २००४ मे यह राशि बढ़कर ढाई लाख और साल २००६ में चार लाख पचास हजार और २००८ में छह लाख सालाना हो गयी।
          मौजूदा राजग सरकार पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के लिए एक माकूल विधेयक पहले ही पेश कर दिया है लेकिन विपक्ष के विरोध के चलते इसे राज्यसभा मे चयन समिति के पास भेजना पड़ा। भाजपा ने इस मौके को बखूबी भुनाया और कांग्रेस पर तीखे सवाल दागे जो ओबीसी सम्प्रदाय के भले की बात करती है वह पिछड़े वर्गों के पक्ष में संविधान संशोधन का शासकीय प्रस्ताव अंगीकरण करने को तैयार नहीं है। मोदी सरकार ने जिस नये आयोग को बनाने की बात कही है, उससे ऐसा लग रहा है कि अगर ऐसी कोई जाती वर्ग है जो समाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा नहीं है उसको ओबीसी की श्रेणी से बाहर किया जा सकता है और इसमें नई जातियों को शामिल करने का अवसर मिल सकता है।
          ओबीसी जातियां देश के दोनों मुख्य धर्मों में ४० फीसदी के आसपास है। ईसाई धर्म में इनकी संख्या ४१फीसदी, पारसी मे १३ फीसदी, जैनों मे ३ फीसदी, सिखों में २ फीसदी, बौद्धों में ०.४ फीसदी अन्य मे ६ फीसदी के लगभग ओबीसी जातियां है। अगर राज्यवार ओबीसी जातियों की गणना की जाए तो सबसे ज्यादा महाराष्ट्र में २५५ पिछड़ी जातियां है। इसके बाद ओड़िसा में १९८, झारखंड में १३४, बिहार में १३२, उत्तराखंड में ७९, उत्तर प्रदेश में ७७, दिल्ली में ५८ और मध्यप्रदेश मे ५५ है। ओबीसी की जो परिभाषा अभी है वह मंडल आयोग के हिसाब से है।अंग्रेजों ने जो सुचीं उस समय बनायी थी, आज भी यह उसी आधार पर चल रही है।
          भाजपा चाहती है कि ओबीसी की परिभाषा नए सिरे से तय की जाए। एक ओर जहां भाजपा इसे समय की जरूरत मान रही है वहीं विपक्षी दल इसे आरक्षण खत्म करने की साजिश मान रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि इस नए आयोग से ओबीसी जातियों को कितना लाभ मिलता है।
                                             ~ मानोज पाल 'विकल्प'

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